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Sunday, February 20, 2011
Monday, January 18, 2010
डायबिटीज के नियंत्रण की कुंजी- अलसी
पिछले तीन-चार दशकों से हमारे भोजन में ओमेगा-3 वसा अम्ल की मात्रा बहुत ही कम हो गई है और इस कारण हमारे शरीर में ओमेगा-3 व ओमेगा-6 वसा अम्ल यानी हिंदी में कहें तो ॐ-3 और ॐ-6 वसा अम्लों का अनुपात 1:40 या 1:80 हो गया है जबकि यह 1:1 होना चाहिये। यह भी डायबिटीज का एक बड़ा कारण है। डायबिटीज के नियंत्रण हेतु आयुवर्धक, आरोग्यवर्धक व दैविक भोजन अलसी को “अमृत“ तुल्य माना गया है।
अलसी के तेल का अदभुत संरचना और “ॐ खंड“ की क्वांटम
अलसी के तेल में अल्फा-लिनोलेनिक एसिड (ए.एल.ए.) नामक ओमेगा-3 वसा अम्ल होता है। डा. बुडविज ने ए.एल.ए. और एल.ए. वसा अम्लों की अदभुत
संरचना का गूढ़ अध्ययन किया था। ए.एल.ए. में 18 कार्बन के परमाणुओं की लड़ी या श्रृंखला होती है जिसके एक सिरे से , जिसे ओमेगा एण्ड कहते हैं, मिथाइल (CH3) ग्रुप जुड़ा रहता है और दूसरे से जिसे डेल्टा एण्ड कहते हैं, कार्बोक्सिल (COOH) ग्रुप जुड़ा रहता है। ए.एल.ए. में तीन द्वि बंध क्रमशः तीसरे, छठे और नवें कार्बन परमाणु के बाद होते हैं। चुंकि ए.एल.ए. में पहला द्वि बंध तीसरे और एल.ए. में पहला द्वि बंध छठे कार्बन के बाद होता है इसीलिए इनको क्रमशः ओमेगा-3 और ओमेगा-6 वसा अम्ल कहते हैं। ए.एल.ए. और एल.ए. हमारे शरीर में नहीं बनते, इसलिए इनको “आवश्यक वसा अम्ल” कहते हैं तथा इनको भोजन के माध्यम से लेना आवश्यक है। आवश्यक वसा अम्लों की कार्बन लड़ी में जहां द्वि-बंध बनता है और दो हाइड्रोजन अलग होते हैं, उस स्थान पर इलेक्ट्रोनों का बादलनुमा समुह, जिसे पाई-इलेक्ट्रोन भी कहते हैं, बन जाता हैं और इस जगह ए.एल.ए. की लड़ मुड़ जाती है। इलेक्ट्रोन के इस बादल में अपार विद्युत आवेश रहता है जो सूर्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड से आने वाले प्रकाश की किरणों के सबसे छोटे घटक फोटोन (जो असिमित, गतिशील, अनंत, जीवन शक्ति से भरपूर व ऊर्जावान हैं और अपना रंग, प्रकृति और आवृत्ति बदल सकते हैं) को आकर्षित करते हैं।
ये फोटोन सूर्य से निकल कर, जो 9.3 अरब मील दूर हैं, असीम ऊर्जा लेकर, जीवन की आस लेकर, प्यार की बहार लेकर, खुशियों की सौगात लेकर आते हैं, अपनी लय, ताल व आवृत्ति बदल कर इलेक्ट्रोन, जो अपने कक्ष में निश्चत आवृत्ति पर सदैव गतिशील रहते हैं, की ओर आकर्षित होते हैं, साथ मिल कर नृत्य करते हैं और तब पूरा कक्ष समान आवृत्ति में दिव्य गुंजन करता है और असीम सौर ऊर्जा का प्रवाह होता है। यही है जीवन का अलसी फलसफा, प्रेम का उत्सव, यही है प्रकृति का संगीत। यही है फोटोन रूपी सूर्य और इलेक्ट्रोन रूपी चंद्र का परलौकिक गंधर्व विवाह, यही है शिव और पार्वती का तांण्डव नृत्य, यही है विष्णु और लक्ष्मी की रति क्रीड़ा, यही है कृष्ण और राधा का अंनत, असीम प्रेम।
पाई-इलेक्ट्रोन कोशिकाओं में भरपूर ऑक्सीजन को भी आकर्षित करते हैं। ए.एल.ए कोशिकाओं की भित्तियों को लचीला बनाते हैं जिससे इन्सुलिन का बड़ा अणु आसानी से कोशिका में प्रवेश कर जाता है। ये पाई-इलेक्ट्रोन ऊर्जा का संग्रहण करते हैं और एक केपेसिटर की तरह काम करते हैं। यही जीवन शक्ति है जो हमारे पूरे शरीर विशेष तौर पर मस्तिष्क, आँखों, मांसपेशियों और स्नायु तंत्र की कोशिकाओं में भरपूर ऊर्जा भरती है।
डायबिटीज के रोगी को ऐसे ऊर्जावान इलेक्ट्रोन युक्त अलसी के 30 एम.एल. तेल और 80-100 एम.एल. दही या पनीर को विद्युत चालित हाथ से पकड़ने वाली मथनी द्वारा अच्छी तरह फेंट कर फलों और मेवों से सजा कर नाश्ते में लेना चाहिये। इसे एक बार लंच में भी ले सकते हैं। जिस तरह ॐ में सारा ब्रह्मांड समाया हुआ है ठीक उसी प्रकार अलसी के तेल में संम्पूर्ण ब्रह्मांड की जीवन शक्ति समायी हुई है। इसीलिए अलसी और दही, पनीर के इस व्यंजन को हम “ॐ खंड” कहते हैं। अलसी का तेल शीतल विधि द्वारा निकाला हुआ फ्रीज में संरक्षित किया हुआ ही काम में लेना चाहिए। इसे गर्म नहीं करना चाहिये और हवा व प्रकाश से बचाना चाहिये ताकि यह खराब न हो। 42 डिग्री सेल्सियस पर यह खराब हो जाता है।
अलसी की फाइबर युक्त स्वास्थयप्रद रोटीः
अलसी ब्लड शुगर नियंत्रित रखती है व डायबिटीज से शरीर पर होने वाले दुष्प्रभावों को कम करती है। डायबिटीज के रोगी को कम शर्करा व ज्यादा फाइबर खाने की सलाह दी जाती है। अलसी व गैहूं के मिश्रित आटे में (जहां अलसी और गैहूं बराबर मात्रा में हो) 50 प्रतिशत कार्ब, 16 प्रतिशत प्रोटीन व 20 प्रतिशत फाइबर होते हैं यानी इसका ग्लायसीमिक इन्डेक्स गैहूं के आटे से काफी कम होता है। जबकी गैहूं के आटे में 72 प्रतिशत कार्ब, 12.5 प्रतिशत प्रोटीन व 12 प्रतिशत फाइबर होते हैं। डायबिटीज पीडित के लिए इस मिश्रित आटे की रोटी सर्वोत्तम मानी गई है।
डायबिटीज के रोगी को रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट्स जैसे आलू, सफेद चावल, मेदा, चीनी और खुले हुए या पैकेट बंद सभी खाद्य पदार्थ, जंक फूड, फास्ट फूड, सोफ्ट ड्रिंक आदि का सेवन कतई नहीं करना चाहिये। रोज 4 से 6 बार परन्तु थोड़ा-थोड़ा भोजन करना चाहिये। सांयकालीन भोजन सोने के 4-5 घण्टे पहले ग्रहण करना चाहिये। प्याज, लहसुन, गोभी, टमाटर, पत्तागोभी, मेथी, भिण्डी, पालक, बैंगन, लौकी, ऑवला, गाजर, नीबू आदि हरी सब्जीयां भरपूर खानी चाहिये। फलों में जामुन, सेब, संतरा, अंगूर, पपीता, आम, केला आदि सभी फल खाने चाहिये। खाद्यान्न व दालें भी छिलके समेत खाएं। छिलकों में फाइबर व महत्वपूर्ण विटामिन होते हैं। अंकुरित दालों का सेवन अवश्य करें।
रोज सुबह एक घण्टा व शांम को आधा घण्टा पैदल चलना चाहिये। सुबह कुछ समय प्राणायाम, योग व व्यायाम करना चाहिये। रोजाना चुटकी भर पिसी हुई दालचीनी सब्जी या चाय में मिला कर लेना चाहिये। सर्व विदित है कि क्रोमियम और अल्फा-लाइपोइक एसिड शर्करा के चयापचय में सहायक हैं अतः डाटबिटीज के रोगी को रोज 200 माइक्रोग्राम क्रोमियम और 100 माइक्रोग्राम अल्फा-लाइपोइक एसिड लेना ही चाहिये। अधिकतर एंटीऑक्सीडेंट केप्स्यूल में ये दोनो तत्व होते हैं। मेथीदाना, करेला, जामुन के बीज, आंवला, नीम के पत्ते, घृतकुमारी (गंवार पाठा) आदि का सेवन करें। एक कप कलौंजी के बीज, एक कप राई, आधा कप अनार के छिलके और आधा कप पितपाप्र को पीस कर चूर्ण बना लें। आधी छोटी चम्मच कलौंजी के तेल के साथ रोज नाश्ते के पहले एक महीने तक लें।
डायबिटीज के दुष्प्रभावों में अलसी का महत्वः-
हृदय रोग एवं उच्च रक्तचापः-
डायबिटीज के रोगी को उच्च रक्तचाप, कोरोनरी आर्टरी डिजीज, हार्ट अटेक आदि की प्रबल संभावना रहती हैं। अलसी हमारे रक्तचाप को संतुलित रखती हैं। अलसी हमारे रक्त में अच्छे कॉलेस्ट्राल (HDL Cholesterol) की मात्रा को बढ़ाती है और ट्राइग्लीसराइड्स व खराब कोलेस्ट्रोल (LDL Cholesterol) की मात्रा को कम करती है। अलसी दिल की धमनियों में खून के थक्के बनने से रोकती है और हृदयाघात से बचाव करती हैं। हृदय की गति को नियंत्रित कर वेन्ट्रीकुलर एरिद्मिया से होने वाली मृत्यु दर को बहुत कम करती है।
नैत्र रोगः-
डायबिटीज के दुष्प्रभावों के कारण आँखों के दृष्टि पटल की रक्त वाहिनियों में कहीं-कहीं हल्का रक्त स्राव और रुई जैसे सफेद धब्बे बन जाते हैं। इसे रेटीनोपेथी कहते हैं जिसके कारण आँखों की ज्योति धीरे-धीरे कम होने लगती है। दृष्टि में धुंधलापन आ जाता है। अंतिम अवस्था में रोगी अंधा तक हो जाता है। अलसी इसके बचाव में बहुत लाभकारी पाई गई है। डायबिटीज के रोगी को मोतियाबिन्द और काला पानी होने की संभावना ज्यादा रहती है। ऑखों में रोजाना एक बूंद अलसी का तेल डालने से हम इन तकलीफों से बच सकते हैं। इससे नजर अच्छी हो जाती हैं, रंग ज्यादा स्पष्ट व उजले दिखाई देने लगते हैं तथा धीरे-धीरे चश्मे का नम्बर भी कम हो सकता है।
वृक्क रोगः-
डायबिटीज का बुरा असर गुर्दों पर भी पड़ता है। गुर्दों में डायबीटिक नेफ्रोपेथी नामक रोग हो जाता है, जिसकी आरंम्भिक अवस्था में प्रोटीन युक्त मूत्र आने लगता है, बाद में गुर्दे कमजोर होने लगते हैं और अंत में गुर्दे नाकाम हो जाते हैं। फिर जीने के लिए डायलेसिस व गुर्दा प्रत्यारोपण के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता हैं। अलसी गुर्दे के उत्तकों को नयी ऊर्जा देती है। शिलाजीत भी गुर्दे का कायाकल्प करती है, डायबिटीज के दुष्प्रभावों से गुर्दे की रक्षा करती है व रक्त में शर्करा की मात्रा कम करती है। डायबिटीज के रोगी को शिलाजीत भी लेना ही चाहिये।
पैरः-
डायबिटीज के कारण पैरों में रक्त का संचार कम हो जाता है व पैरों में एसे घाव हो जाते हैं जो आसानी से ठीक नहीं होते। इससे कई बार गेंग्रीन बन जाती है और इलाज हेतु पैर कटवानाक पड़ जाता हैं। इसी लिए डायबिटीज पीड़ितों को चेहरे से ज्यादा अपने पैरों की देखभाल करने की सलाह दी जाती है। पैरों की नियमित देखभाल, अलसी के तेल की मालिश व अलसी खाने से पैरों में रक्त का प्रवाह बढ़ता हैं, पैर के घाव व फोड़े आदि ठीक होते हैं। पैर व नाखुन नम, मुलायम व सुन्दर हो जाते हैं।
अंतिम दो शब्दः-
डायबिटीज में कोशिका स्तर पर मुख्य विकृति इन्फ्लेमेशन या शोथ हैं। जब हम स्वस्थ आहार-विहार अपना लेते हैं और अलसी सेवन करते हैं तो हमें पर्याप्त ओमेगा-3 ए.एल.ए. मिलता हैं और हमारे शरीर में ओमेगा-3 व ओमेगा-6 वसा अम्ल का अनुपात सामान्य हो जाता है व डायबिटीज का नियंत्रण आसान हो जाता है और इंसुलिन या दवाओं की मात्रा कम होने लगती है।
डा. बुडविज का कैंसररोधी आहार विहार
1923 में डॉ. ओटो वारबर्ग ने कैंसर के मुख्य कारण की खोज कर ली थी। जिसके लिये उन्हें 1931 में नोबल पुरस्कार दिया गया था। उन्होनें कोशिकाओं की श्वसन क्रिया और चयापचय पर बहुत परिक्षण किये थे। उन्होंने पता लगाया था कि कैंसर का मुख्य कारण कोशिकाओं में होने वाली श्वसन क्रिया का बाधित होना है।
सामान्य कोशिकाएँ अपने चयापचय हेतु ऊर्जा ऑक्सीजन से ग्रहण करती है। जबकि कैंसर कोशिकाऐं ऑक्सीजन के अभाव और अम्लीय माध्यम में ही फलती फूलती है। कैंसर कोशिकायें ऑक्सीजन से श्वसन क्रिया नहीं करती। यदि कोशिकाओं को ऑक्सीजन की आपूर्ति 48 घन्टे के लिए लगभग 35 प्रतिशत कम कर दी जाए तो वह कैंसर कोशिकाओं में परिवर्तित हो जाती हैं। यदि कोशिकाओं को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे तो कैंसर का अस्तित्व ही संभव नहीं है। उन्होनें कई परिक्षण किये परन्तु वारबर्ग यह पता नहीं कर पाये कि कैंसर कोशिकाओं की बाधित श्वसन क्रिया को कैसे ठीक किया जाये।
डॉ. योहाना ने वारबर्ग के शोध को जारी रखा। वर्षों तक शोध करके पता लगाया कि इलेक्ट्रोन युक्त, अत्यन्त असंतृप्त ओमेगा–3 वसा से भरपूर अलसी, जिसे अंग्रेजी में linseed या Flaxseed कहते हैं, का तेल कोशिकाओं में नई ऊर्जा भरता है, कोशिकाओं की स्वस्थ भित्तियों का निर्माण करता है और कोशिकाओं में ऑक्सीजन को खींचता है। इनके सामने मुख्य समस्या ये थी की अलसी के तेल को जो रक्त में नहीं घुलता है, को कोशिकाओं तक कैसे पहुँचाया जाये ? वर्षों तक कई परीक्षण करने के बाद डॉ. योहाना ने पाया कि सल्फर युक्त प्रोटीन जैसे पनीर अलसी के तेल के साथ मिलाने पर तेल को पानी में घुलनशील बनाता है और तेल को सीधा कोशिकाओं तक पहुँचाता है। इससे कोशिकाओं को भरपूर ऑक्सीजन पहुँचती है व कैंसर खत्म होने लगता है।
1952 में डॉ. योहाना ने ठंडी विधि से निकले अलसी के तेल व पनीर के मिश्रण तथा कैंसर रोधी फलों व सब्जियों के साथ कैंसर रोगियों के उपचार का तरीका विकसित किया, जो “बुडविज प्रोटोकोल के नाम से विख्यात हुआ”। इस उपचार से कैंसर रोगियों को बहुत लाभ मिलने लगा था। इस सरल, सुगम, सुलभ उपचार से कैंसर के रोगी ठीक हो रहे थे। इस उपचार से 90 प्रतिशत तक सफलता मिलती थी। नेता और नोबल पुरस्कार समिति के सभी सदस्य इन्हें नोबल पुरस्कार देना चाहते थे पर उन्हें डर था कि इस उपचार के प्रचलित होने और मान्यता मिलने से 200 बिलियन डालर का कैंसर व्यवसाय (कीमोथेरेपी और विकिरण चिकित्सा उपकरण बनाने वाले बहुराष्ट्रीय संस्थान) रातों रात धराशाही हो जायेगा। इसलिए उन्हें कहा गया कि आपको कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी को भी अपने उपचार में शामिल करना होगा। उन्होंने सशर्त दिये जाने वाले नोबल पुरस्कार को एक नहीं सात बार ठुकराया।
यह सब देखकर कैंसर व्यवसाय से जुड़े मंहगी कैंसररोधी दवाईयां और रेडियोथेरेपी उपकरण बनाने वाले संस्थानों की नींद हराम हो रही थी। उन्हें डर था कि यदि यह उपचार प्रचलित होता है तो उनकी कैंसररोधी दवाईयां और कीमोथेरिपी उपकरण कौन खरीदेगा ? इस कारण सभी बहुराष्ट्रीय संस्थानों ने उनके विरूद्ध कई षड़यन्त्र रचे। ये नेताओं और सरकारी संस्थाओं के उच्चाधिकारियों को रिश्वत देकर डॉ. योहाना को प्रताड़ित करने के लिए बाध्य करते रहे। फलस्वरूप डॉ. योहाना को अपना पद छोड़ना पड़ा, सरकारी प्रयोगशालाओं में इनके प्रवेश पर रोक लगा दी गई और इनके शोध पत्रों के प्रकाशन पर भी रोक लगा दी गई।
विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने इन पर तीस से ज्यादा मुकदमें दाखिल किये। डॉ. बुडविज ने अपने बचाव हेतु सारे दस्तावेज स्वंय तैयार किये और अन्तत: सारे मुकदमों मे जीत भी हासिल की। कई न्यायाधीशों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियो को लताड़ लगाई और कहा कि डॉ. बुडविज द्वारा प्रस्तुत किये गये शोध पत्र सही हैं, इनके प्रयोग वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं, इनके द्वारा विकसित किया गया उपचार जनता के हित में है और आम जनता तक पहुंचना चाहिए। इन्हे व्यर्थ परेशान नहीं किया जाना चाहिए।
वे 1952 से 2002 तक कैंसर के लाखों रोगियों का उपचार करती रहीं। अलबर्ट आईन्स्टीन ने एक बार सच ही कहा था कि आधुनिक युग में भोजन ही दवा का काम करेगा। इस उपचार से सभी प्रकार के कैंसर रोगी कुछ महीनों में ठीक हो जाते थे। वे कैंसर के ऐसे रोगियों को, जिन्हें अस्पताल से यह कर छुट्टी दे दी जाती थी कि अब उनका कोई इलाज संभव नहीं है और उनके पास अब चंद घंटे या चंद दिन ही बचे हैं, अपने उपचार से ठीक कर देती थीं। कैंसर के अलावा इस उपचार से डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, आर्थ्राइटिस, हृदयाघात, अस्थमा, डिप्रेशन आदि बीमारियां भी ठीक हो जाती हैं।
डॉ. योहाना के पास अमेरिका व अन्य देशों के डाक्टर मिलने आते थे, उनके उपचार की प्रसंशा करते थे पर उनके उपचार से व्यावसायिक लाभ अर्जित करने हेतु आर्थिक सौदे बाज़ी की इच्छा व्यक्त करते थे। वे भी पूरी दुनिया का भ्रमण करती थीं। अपनी खोज के बारे में व्याख्यान देती थी। उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें “फेट सिंड्रोम”, “डेथ आफ ए ट्यूमर”, “फलेक्स आयल – ए ट्रू एड अगेन्स्ट आर्थाइटिस, हार्ट इन्फार्कशन, कैंसर एण्ड अदर डिजीज़ेज”, “आयल प्रोटीन कुक बुक”, “कैंसर – द प्रोबलम एण्ड सोल्यूशन” आदि मुख्य हैं। उन्होंने अपनी आख़िरी पुस्तक 2002 में लिखी थी।
सौर ऊर्जा, इलेक्ट्रोन और लिनोलेनिक एसिड का अलौकिक संबंध :-
प्रकाश सबसे तेज चलता है। क्वांटम भौतिकी के अनुसार सूर्य की किरणों के सबसे छोटे घटक या कण को क्वांटम या फोटोन कहते हैं जो अनंत हैं, शाश्वत हैं, सक्रिय हैं, सदैव हैं, ऊर्जावान हैं और गतिशील हैं। इन्हें कोई नहीं रोक सकता है। ये ऊर्जा का सबसे परिष्कृत रूप हैं, ये सबसे निर्मल लहर हैं। इनमें ब्रह्मांड के सारे रंग है। ये अपना रंग, प्रकृति और आवृत्ति बदल सकते हैं।
इलेक्ट्रोन परमाणु का घटक है और न्यूक्लियस के चारों ओर अपने निश्चित कक्ष में निश्चित आवृत्ति में सदैव परिक्रमा करते रहते हैं, सदैव गतिशील रहते हैं। इलेक्ट्रोन का चुम्बकीय क्षेत्र अत्यन्त गतिशील फोटोन को अपनी ओर आकर्षित करता है, जब भी कोई विद्युत गतिशील होता है तो एक चुम्बकीय क्षेत्र बनता है। गतिशील फोटोन का भी चुम्बकीय क्षेत्र होता है। जब इलेक्ट्रान और फोटोन के चुम्बकीय क्षेत्र समान आवृत्ति पर गुंजन करते हैं तो ये एक दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
फोटोन सूर्य से निकलकर जो 9.3 अरब मील दूर है, असीम ऊर्जा लेकर, जीवन की आस लेकर, प्यार की बहार लेकर, खुशियों की सौगात लेकर आते हैं, अपनी लय, ताल व आवृत्ति बदल कर इलेक्ट्रोन, जो अपने कक्ष में निश्चित आवृत्ति पर सदैव परिक्रमा करते रहते हैं, की ओर आकर्षित होते हैं, साथ मिल कर नृत्य करते हैं और तब पूरा कक्ष समान आवृत्ति में दिव्य गुंजन करता है और असीम सौर ऊर्जा का प्रवाह होता है। यही है जीवन का असली फलसफा, प्रेम का उत्सव, यही है प्रकृति का संगीत। यही है फोटोन रूपी सूर्य और इलेक्ट्रोन रूपी चंद्र का पारलौकिक गंधर्व विवाह, यही है शिव और पार्वति का तांण्डव नृत्य, यही है विष्णु और लक्ष्मी की रति क्रीड़ा, यही है कृष्ण और राधा का अनंत, असीम प्रेम। हमें सूर्य से बहुत प्रेम है और यह सिर्फ कोई संयोग नहीं है। हमारे शरीर की लय सूर्य की लय से इतनी मिलती है कि हम सूर्य की ऊर्जा का सबसे ज्यादा अवशोषण करते हैं। इसलिए क्वांटम वैज्ञानिक कहते हैं कि संपूर्ण ब्रह्मांड सबसे ज्यादा सौर ऊर्जा या फोटोन मनुष्य के शरीर में ही होते हैं। यह क्षमता और बढ़ जाती है जब हम इलेक्ट्रोन से भरपूर अत्यंत असंतृप्त वसा अम्ल (अलसी जिनका भरपूर स्रोत है) का सेवन करते हैं।
जीवन शक्ति और अल्फा-लिनोलेनिक एसिड (ए.एल.ए)-
अलसी के तेल में अल्फा–लिनोलेनिक एसिड (ए.एल.ए.) नामक ओमेगा–3 वसा अम्ल होता है। डॉ. बुडविज ने ए.एल.ए. की अद्भुत संरचना का गूढ़ अध्ययन किया। ए.एल.ए. में 18 कार्बन के परमाणुओं की लड़ी या श्रंखला होती है जिसके एक सिरे से, जिसे ओमेगा सिरा कहते हैं, मिथाइल (CH3) ग्रुप जुड़ा रहता है और दूसरे से, जिसे डेल्टा सिरा कहते हैं, कार्बोक्सिल (COOH) जुड़ा रहता है। ए.एल.ए. में 3 द्वि-बंध ओमेगा सिरे से क्रमशः तीसरे, छठे और नवें कार्बन परमाणु के बाद होते हैं चूंकि पहला द्वि-बंध तीसरे कार्बन के बाद होता है इसीलिए इसको ओमेगा–3 वसा अम्ल (N – 3) कहते हैं। ए.एल.ए. हमारे शरीर में नहीं बन सकते, इसलिए इनको “आवश्यक वसा” अम्ल कहते हैं अत: इनको भोजन द्वारा लेना अति “आवश्यक” है।
ए.एल.ए की कार्बन श्रंखला में जहां द्वि-बंध बनता है और दो हाइड्रोजन के परमाणु अलग होते हैं, वहां इलेक्ट्रोनों का बडा झुंण्ड या बादल सा, जिसे “पाई–इलेक्ट्रोन्स” भी कहते हैं, बन जाता है और इस जगह ए.एल.ए. की लड़ मुड जाती है। इलेक्ट्रोन के इस बादल में अपार विद्युत आवेश रहता है जो सूर्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड से आने वाले प्रकाश की किरणों के सबसे छोटे घटक फोटोन को आकर्षित करते हैं, अवशोषण करते हैं। ओमेगा-3 ऑक्सीजन को कोशिका में खींचते हैं, प्रोटीन को आकर्षित करते हैं। ये पाई–इलेक्ट्रोन ऊर्जा का संग्रहण करते हैं और एक एन्टीना की तरह काम करते हैं। यही है जीवन शक्ति जो हमारे पूरे शरीर विशेष तौर पर मस्तिष्क, ऑखों, हृदय, मांसपेशियां, स्नायुतंत्र, कोशिका की भित्तियों आदि को भरपूर ऊर्जा देती है।
कैंसररोधी योहाना बुडविज आहार विहार
डॉ. बुडविज आहार-विहार क्रूर, कुटिल, कपटी, कठिन, कष्टप्रद कर्क रोग का सस्ता, सरल, सुलभ, संपूर्ण और सुरक्षित समाधान है। आहार में प्रयुक्त ताजा इलेक्ट्रोन युक्त और (जैविक जहां तक सम्भव हो) होने चाहिए। इस आहार में अधिकांश खाद्य पदार्थ सलाद और रसों के रूप में लिये जाते है, जिन्हें ताजा तैयार किया जाना चाहिए ताकि रोगी को भरपूर इलेक्ट्रोन्स मिले। ड़ॉ. बुडविज ने इलेक्ट्रोन्स पर बहुत जोर दिया है। अलसी के तेल में भरपूर इलेक्ट्रोन्स होते हैं और ड़ॉ बुडविज ने अन्य इलेक्ट्रोन्स युक्त खाद्यान्न भी ज्यादा से ज्यादा लेने की सलाह दी है। इस उपचार के बाद में कहा जाता है कि छोटी-छोटी बातें भी महत्वपूर्ण हैं। और जरा सी असावधानी इस आहार के औषधीय प्रभाव को प्रभावित कर सकती है।
रोज सूर्य के प्रकाश का सेवन अनिवार्य है। इससे विटामिन-डी भी प्राप्त होता है। रोजाना दस-दस मिनट के लिए दो बार कपड़े उतार कर धूप में लेटना आवश्यक है। पांच मिनट सीधा लेटे और करवट बदलकर पांच मिनट उल्टे लेट जायें ताकि शरीर के हर हिस्से को सूर्य के प्रकाश का लाभ मिले। रोगी की रोजाना अलसी के तेल की मालिश भी की जानी चाहिए इससे शरीर में रक्त का प्रवाह बढ़ता है और टॉक्सिन बाहर निकलते है। रोगी को हर तरह के प्रदूषण (जैसे मच्छर मारने के स्प्रे आदि) और इलेक्ट्रानिक उपकरणों (जैसे CRT वाले टी.वी. आदि) से निकलने वाले विकिरण से जहां तक सम्भव हो बचना चाहिए। रोगी को सिन्थेटिक कपड़ो की जगह ऊनी, लिनन और सूती कपड़े प्रयोग पहनना चाहिए। गद्दे भी फोम और पोलिएस्टर फाइबर की जगह रुई से बने हों।
यदि रोगी की स्थिति बहुत खराब हो या वह ठीक से भोजह नहीं ले पा रहा है तो उसे अलसी के तेल का एनीमा भी दिना चाहिये। ड़ॉ. बुडविज ऐसे रोगियों के लिए “अस्थाई आहार” लेने की सलाह देती थी। यह अस्थाई आहार यकृत और अग्न्याशय कैंसर के रोगियों को भी दिया जाता है क्योंकि वे भी शुरू में सम्पूर्ण बुडविज आहार नहीं पचा पाते हैं। अस्थाई आहार में रोगी को सामान्य भोजन के अलावा कुछ दिनों तक पिसी हुई अलसी और पपीते, अंगूर व अन्य फलों का रस दिया जाता है। कुछ दिनों बाद जब रोगी की पाचन शक्ति ठीक हो जाती है तो उसे धीरे-धीरे सम्पूर्ण बुडविज आहार शुरू कर दिया जाता है।
प्रातः
प्रातः एक ग्लास सॉवरक्रॉट (खमीर की हुई पत्ता गोभी) का रस या एक गिलास छाछ लें। सॉवरक्रॉट में कैंसररोधी तत्व और भरपूर विटामिन-सी होता है और यह पाचन शक्ति भी बढ़ाता है। यह हमारे देश में उपलब्ध नहीं है परन्तु इसे घर पर पत्ता गोभी को ख़मीर करके बनाया जा सकता है।
नाश्ता
नाश्ते से आधा घंटा पहले बिना चीनी की गर्म हर्बल या हरी चाय लें। मीठा करने के लिए एक चम्मच शहद या स्टेविया का प्रयोग कर सकते हैं। यह पिसी अलसी के फूलने हेतु गर्म तरल माध्यम का कार्य करती है। अब आपको “ॐ खंड”, जो अलसी के तेल और घर पर बने वसा रहित पनीर या दही से बने पनीर को मिला कर बनाया जायेगा, लेना है।
पनीर बनाने के लिए गाय या बकरी का दूध सर्वोत्तम रहता है। इसे एकदम ताज़ा बनायें, तुरंत खूब चबा चबा कर आनंद लेते हुए सेवन करें। 3 बड़ी चम्मच यानी 45 एम.एल. अलसी का तेल और 6 बड़ी चम्मच यानी 90 एम.एल. पनीर को बिजली से चलने वाले हेन्ड ब्लेंडर से एक मिनट तक अच्छी तरह मिक्स करें। तेल और पनीर का मिश्रण क्रीम की तरह हो जाना चाहिये और तेल दिखाई देना नहीं चाहिये। तेल और पनीर को ब्लेंड करते समय यदि मिश्रण गाढ़ा लगे तो 1 या 2 चम्मच अंगूर का रस या दूध मिला लें। अब 2 बड़ी चम्मच अलसी ताज़ा पीस कर मिलायें। अलसी को पीसने के बाद पन्द्रह मिनट के अन्दर काम में ले लेना चाहिए।
मिश्रण में स्ट्राबेरी, रसबेरी, जामुन आदि फल मिलाऐं। बेरों में एलेजिक एसिड होते हैं जो कैंसररोधी हैं। आप चाहें तो आधा कप कटे हुए अन्य फल भी मिला लें। इसे कटे हुए मेवे खुबानी, बादाम, अखरोट, किशमिश, मुनक्के आदि सूखे मेवों से सजाऐ। मूंगफली वर्जित है। मेवों में सल्फर युक्त प्रोटीन, वसा और विटामिन होते हैं। स्वाद के लिए वनिला, दाल चीनी, ताजा काकाओ, कसा नारियल या नींबू का रस मिला सकते हैं।
दिन भर में कुल शहद 3 – 5 चम्मच से ज्यादा न लें। याद रहे शहद प्राकृतिक व मिलावट रहित हो। डिब्बा बंद या परिष्कृत कतई न हो। दिन भर में 6 या 8 खुबानी के बीज अवश्य ही खायें। इनमें विटामिन बी-17 होता हैं जो कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करता है। फल, मेवे और मसाले बदल कर प्रयोग करें। ओम खण्ड को बनाने के दस मिनट के भीतर ले लेना चाहिए। यदि और खाने की इच्छा हो तो टमाटर, मूली, ककड़ी आदि के सलाद के साथ कूटू, ज्वार, बाजरा आदि साबुत अनाजों के आटे की बनी एक रोटी ले लें। कूटू को बुडविज ने सबसे अच्छा अन्न माना है। गैहू में ग्लूटेन होता है और पचने में भारी होता है अतः इसका प्रयोग तो कम ही करें।
10बजे
नाश्ते के 1 घंटे बाद घर पर ताजा बना गाजर, मूली, लौकी, चुकंदर, गाजर आदि का ताजा रस लें। गाजर और चुकंदर यकृत को ताकत देते हैं और अत्यंत कैंसर रोधी होते हैं।
दोपहर का खाने
दोपहर के खाने के आधा घंटा पहले एक गर्म हर्बल चाय लें। कच्ची सब्जियां जैसे चुकंदर, शलगम, मूली, गाजर, गोभी, हरी गोभी, हाथीचाक, शतावर, आदि के सलाद को घर पर बनी सलाद ड्रेसिंग या ऑलियोलक्स के साथ लें। ड्रेसिंग को 1-2 चम्मच अलसी के तेल व 1-2 चम्मच पनीर के मिश्रण में एक चम्मच सेब का सिरका या नीबू के रस और मसाले डाल कर बनाएं।
सलाद को मीठा करना हो तो अलसी के तेल में अंगूर, संतरे या सेब का रस या शहद मिला कर लें। यदि फिर भी भूख है तो आप उबली या भाप में पकी सब्जियों के साथ एक दो मिश्रित आटे की रोटी ले सकते हैं। सब्जियों व रोटी पर ऑलियोलक्स (इसे नारियल, अलसी के तेल, प्याज, लहसुन से बनाया जाता है) भी डाल सकते हैं। मसाले, सब्जियों व फल बदल – बदल कर लेवें। रोज़ एक चम्मच कलौंजी का तेल भी लें। भोजन तनाव रहित होकर खूब चबा-चबा कर खाएं।
“ॐ खंड” की दूसरी खुराकः-
अब नाश्ते की तरह ही 3 बड़ी चम्मच अलसी के तेल व 6 बड़ी चम्मच पनीर के मिश्रण में ताजा फल, मेवे और मसाले मिलाकर लें। यह अत्यंत आवश्यक हैं। हां पिसी अलसी इस बार न डालें।
दोपहर बाद
अन्नानास, चेरी या अंगूर के रस में एक चम्मच अलसी को ताजा पीस कर मिलाएं और खूब चबा कर, लार में मिला कर धीरे धीरे चुस्कियां ले लेकर पियें। चाहें तो आधा घंटे बाद एक गिलास रस और ले लें।
तीसरे पहर बाद
पपीता या ब्लू बेरी (नीला जामुन) रस में एक चम्मच अलसी को ताजा पीस कर डालें खूब चबा–चबा कर, लार में मिला कर धीरे – धीरे चुस्कियां ले लेकर पियें। पपीते में भरपूर एंज़ाइम होते हैं और इससे पाचन शक्ति भी ठीक होती है।
शाम का खाना
शाम को बिना तेल डाले सब्जियों का शोरबा या अन्य विधि से सब्जियां बनायें। मसाले भी डालें। पकने के बाद ईस्ट फ्लेक्स और ऑलियोलक्स डालें। ईस्ट फ्लेक्स में विटामिन-बी होते हैं जो शरीर को ताकत देते हैं। टमाटर, गाजर, चुकंदर, प्याज, शतावर, शिमला मिर्च, पालक, पत्ता गोभी, गोभी, हरी गोभी (ब्रोकोली) आदि सब्जियों का सेवन करें। शोरबे को आप उबले कूटू, भूरे चावल, रतालू, आलू, मसूर, राजमा, मटर साबुत दालें या मिश्रित आटे की रोटी के साथ ले सकते हैं।
बुडविज आहार के अत्यंत महत्वपूर्ण बिन्दु
1. डॉ. योहाना कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी, वनस्पति घी, ट्रांस फेट, मक्खन, घी, चीनी, मिश्री, गुड़, रिफाइण्ड तेल, सोयाबीन व सोयाबीन से निर्मित दूध व टॉफू आदि, प्रिज़र्वेटिव, कीटनाशक, रसायन, सिंथेटिक कपड़ों, मच्छर मारने के स्प्रे, बाजार में उपलब्ध खुले व पेकेट बंद खाद्य पदार्थ, अंडा, मांस, मछली, मुर्गा, मैदा आदि से पूर्ण परहेज करने की सलाह देती थी। वे कैंसर रोगी को सनस्क्रीन लोशन, धूप के चश्में आदि का प्रयोग करने के लिए भी मना करती थी।
2. इस उपचार में यह बहुत आवश्यक है कि प्रयोग में आने वाले सभी खाद्य पदार्थ ताजा, जैविक और इलेक्ट्रोन युक्त हो। बचे हुए व्यंजन फेंक दें।
3. अलसी को जब आवश्यकता हो तभी पीसें। पीसकर रखने से ये खराब हो जाती है। तेल को तापमान (42 डिग्री सेल्सियस पर यह खराब हो जाता है), प्रकाश व ऑक्सीजन से बचायें। आप इसे गहरे रंग के पात्र में भरकर डीप फ्रीज़ में रखें।
4. दिन में कम से कम तीन बार हरी या हर्बल चाय लें।
5. इस उपचार में धूप का बहुत महत्व है। थोड़ी देर धूप में बैठना है या भ्रमण करना है जिससे आपको विटामिन डी प्राप्त होता है। सूर्य से ऊर्जा मिलेगी।
6. प्राणायाम, ध्यान व जितना संभव हो हल्का फुल्का व्यायाम या योगा करना है।
7. घर का वातावरण तनाव मुक्त, खुशनुमा, प्रेममय, आध्यात्मिक व सकारात्मक रहना चाहिये। आप मधुर संगीत सुनें, खूब हंसें, खेलें कूदें। क्रोध न करें।
8. सप्ताह में दो-तीन बार भाप स्नान या सोना-बाथ लेना चाहिए।
9. पानी स्वच्छ व फिल्टर किया हुआ पियें।
10. इस उपचार से धीरे-धीरे लाभ मिलता है और यदि उपचार को ठीक प्रकार से लिया जाये तो सामान्यत: एक वर्ष या कम समय में कैंसर पूर्णरूप से ठीक हो जाता है। रोग ठीक होने के पश्चात भी इस उपचार को 2-3 वर्ष या आजीवन लेते रहना चाहिये।
11. अपने दांतो की पूरी देखभाल रखना है। दांतो को इंफेक्शन से बचाना चाहिये।
12. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस उपचार को जैसा ऊपर विस्तार से बताया गया है वैसे ही लेना है अन्यथा फायदा नहीं होता है या धीरे-धीरे होता है।
आप सोच रहे होगें कि डॉ. योहाना की उपचार पद्धति इतनी असरदायक व चमत्कारी है तो यह इतनी प्रचलित क्यों नहीं है। यह वास्तव में इंसानी लालच की पराकाष्ठा है। सोचिये यदि कैंसर के सारे रोगी अलसी के तेल व पनीर से ही ठीक होने लगते तो कैंसर की मंहगी दवाईया व रेडियोथेरेपी उपकरण बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कितना बड़ा आर्थिक नुकसान होता। इसलिए उन्होंने किसी भी हद तक जाकर डॉ. योहाना के उपचार को आम आदमी तक नहीं पहुंचने दिया। मेडीकल पाठ्यक्रम में उनके उपचार को कभी भी शामिल नहीं होने दिया। यह हम पृथ्वी वासियों का दुर्भाग्य है कि हमारे यहां शरीर के लिए घातक व बीमारियां पैदा करने वाले वनस्पति घी बनाने वालों पाल सेबेटियर और विक्टर ग्रिगनार्ड को 1912 में नोबेल पुरस्कार दे दिया गया और कैंसर जैसी जान लेवा बीमारी के इलाज की खोज करने वाली डॉ. योहाना नोबेल पुरस्कार से वनचित रह गई। क्या कैंसर के उन करोड़ों रोगियों, जो इस उपचार से ठीक हो सकते थे, की आत्माएँ इन लालची बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कभी क्षमा कर पायेगी ? ? ? लेकिन आज यह जानकारी हमारे पास है और हम इसे कैंसर के हर रोगी तक पहुँचाने का संकल्प लेते हैं। डॉ. योहाना का उपचार श्री कृष्ण भगवान का वो सुदर्शन चक्र है जिससे किसी भी कैंसर का बच पाना मुश्किल है। अधिक जानकारी हेतु अंतरजाल पर हमारे पृष्ठ http://flaxindia.ning.com पर विचरण करें।